रविवार, नवंबर 10, 2024

रामचरित मानस तुलसीदास ramcharitmanas tulsidas ji


 दोस्तों, रामचरितमानस तुलसीदास जी द्वारा रचित एक महाकाव्य है, जो भगवान श्रीराम के जीवन और उनके आदर्शों का संपूर्ण वर्णन करता है। इसे रामायण का एक अद्भुत रूपांतरण कहा जा सकता है। तुलसीदास जी ने इसे अवधी भाषा में लिखा, जिससे यह आम जनता के लिए सरल और सुलभ हो गया। इसका रचना काल संवत 1631 (सन् 1574) माना जाता है।

रामचरितमानस सात कांडों में विभाजित है:

1. बाल कांड – श्रीराम के जन्म, बाल्यकाल और उनके विद्या अध्ययन का वर्णन है।


2. अयोध्या कांड – राजा दशरथ का वचन पालन और श्रीराम का वनवास, अयोध्या का शोक चित्रित है।


3. अरण्य कांड – वनवास काल में श्रीराम, सीता और लक्ष्मण के वन जीवन, ऋषि-मुनियों से मिलन, और सीता हरण का वर्णन है।


4. किष्किंधा कांड – श्रीराम का हनुमान और सुग्रीव से मिलन, बाली वध और लंका पर चढ़ाई की तैयारी है।


5. सुंदर कांड – हनुमान जी की लंका यात्रा, सीता से मिलना, लंका दहन और रामभक्ति का संदेश है।


6. लंकाकांड – श्रीराम और रावण के बीच युद्ध का वर्णन है, जिसमें रावण का वध और सीता की मुक्ति होती है।


7. उत्तर कांड – श्रीराम के अयोध्या लौटने, राज्याभिषेक और बाद के घटनाक्रम का उल्लेख है।



रामचरितमानस न केवल एक धार्मिक ग्रंथ है, बल्कि जीवन के विभिन्न पहलुओं पर गहरा संदेश देने वाला साहित्यिक रत्न भी है। इसमें भक्ति, मर्यादा, सत्य और न्याय के आदर्शों को प्रस्तुत किया गया है, जो समाज को एक अनुकरणीय जीवन जीने की प्रेरणा देता है।
दोस्तों गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित रामचरित मानस ग्रंथ अपने घर पर लाकर जरूर पढ़ें और पुजा कक्ष में अवश्य रखें।

तुलसीदास जी की विनयपत्रिका



दोस्तों, विनयपत्रिका संत तुलसीदास जी की एक महान काव्य रचना है, जिसमें उन्होंने भगवान श्रीराम के प्रति अपनी गहरी भक्ति, विनम्रता और आत्मसमर्पण को व्यक्त किया है। इस ग्रंथ में तुलसीदास जी ने अपनी भावनाओं को बहुत ही सरल, हृदयस्पर्शी और सजीव भाषा में प्रस्तुत किया है। इसे हिंदी साहित्य में भक्ति काव्य का उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है।

विनयपत्रिका में कुल 279 पद हैं, जिनमें तुलसीदास जी ने भगवान श्रीराम के चरणों में अपनी विनम्रता और प्रेम भरे निवेदन किए हैं। इस रचना में भक्त भगवान से विभिन्न रूपों में विनय करते हैं, अपने पापों के लिए क्षमा माँगते हैं, जीवन की कठिनाइयों में प्रभु का सहारा चाहते हैं और उनके कृपा-कटाक्ष के लिए प्रार्थना करते हैं।

इस ग्रंथ के कुछ विशेष पहलू:

1. विनय और आत्मसमर्पण: तुलसीदास जी अपने अहंकार को त्यागकर भगवान के प्रति पूरी तरह समर्पित हो गए हैं और उनके चरणों में विनय करते हैं।


2. प्रार्थना और कष्टों का वर्णन: जीवन के कष्टों, दुखों और मोह-माया की कठिनाइयों को ईश्वर की कृपा से दूर करने की प्रार्थना करते हैं।


3. भक्ति की गहराई: इसमें राम भक्ति की गहनता और ईश्वर से अनुराग का अत्यधिक मार्मिक वर्णन है।


4. मानवता और दीनता का बोध: विनयपत्रिका में तुलसीदास ने इस संसार के मोह, माया और क्षणभंगुरता का बोध करवाया है और बताया है कि सच्चा सुख प्रभु की भक्ति में ही है।



प्रसिद्ध पंक्तियाँ:

"मति भेद देखि ब्याकुल चित, प्रभु! मैं बाँह पकड़ि लेहु।
बिनु स्नेह के करि करुणा मय, मोहि अपनाय लेहु॥"

विनयपत्रिका भक्ति की उस पराकाष्ठा को दिखाती है, जहाँ भक्त अपने आराध्य के सामने पूर्ण रूप से विनम्र, समर्पित और अहंकारविहीन होकर खड़ा रहता है। इसे पढ़ने और मनन करने से व्यक्ति के भीतर भक्ति का संचार होता है और हृदय में भगवान श्रीराम के प्रति गहरी श्रद्धा उत्पन्न होती है।
यह पुस्तक गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित हुई, मिल जाएगी।

शनिवार, नवंबर 09, 2024

सम्पूर्ण हनुमान चालीसा


दोस्तों, हनुमान चालीसा तुलसीदास जी द्वारा रचित एक प्रसिद्ध स्तोत्र है जिसमें भगवान हनुमान की स्तुति की गई है। यहाँ इसका सम्पूर्ण पाठ प्रस्तुत है:

दोहा
श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि।
बरनऊँ रघुबर बिमल जसु, जो दायक फल चारि॥

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार॥

चौपाई

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥

राम दूत अतुलित बल धामा।
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा॥

महाबीर बिक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी॥

कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुंडल कुंचित केसा॥

हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजे।
काँधे मूँज जनेऊ साजे॥

शंकर सुवन केसरीनंदन।
तेज प्रताप महा जग बंदन॥

विद्यावान गुनी अति चातुर।
राम काज करिबे को आतुर॥

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।
राम लखन सीता मन बसिया॥

सूक्ष्म रूप धरि सियहि दिखावा।
बिकट रूप धरि लंक जरावा॥

भीम रूप धरि असुर सँहारे।
रामचंद्र के काज सँवारे॥

लाय सजीवन लखन जियाए।
श्रीरघुबीर हरषि उर लाए॥

रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।
नारद सारद सहित अहीसा॥

जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते।
कवि कोविद कहि सके कहाँ ते॥

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।
राम मिलाय राज पद दीन्हा॥

तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना।
लंकेश्वर भए सब जग जाना॥

जुग सहस्त्र जोजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लांघि गए अचरज नाहीं॥

दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥

राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥

सब सुख लहै तुम्हारी सरना।
तुम रक्षक काहू को डरना॥

आपन तेज सम्हारो आपै।
तीनों लोक हाँक तें काँपै॥

भूत पिसाच निकट नहिं आवै।
महावीर जब नाम सुनावै॥

नासै रोग हरै सब पीरा।
जपत निरंतर हनुमत बीरा॥

संकट तें हनुमान छुड़ावै।
मन क्रम वचन ध्यान जो लावै॥

सब पर राम तपस्वी राजा।
तिन के काज सकल तुम साजा॥

और मनोरथ जो कोई लावै।
सोइ अमित जीवन फल पावै॥

चारों जुग परताप तुम्हारा।
है परसिद्ध जगत उजियारा॥

साधु संत के तुम रखवारे।
असुर निकंदन राम दुलारे॥

अष्टसिद्धि नव निधि के दाता।
अस बर दीन जानकी माता॥

राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति के दासा॥

तुम्हरे भजन राम को पावै।
जनम जनम के दुख बिसरावै॥

अन्त काल रघुबर पुर जाई।
जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई॥

और देवता चित्त न धरई।
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई॥

संकट कटै मिटै सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥

दोहा
जय जय जय हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं॥

जो सत बार पाठ कर कोई।
छूटहि बंदि महा सुख होई॥

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा॥

तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ हृदय महँ डेरा॥

चौपाई
पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥

हनुमान चालीसा के नियमित पाठ से भक्तों को बल, बुद्धि, और साहस प्राप्त होता है। इसे पाठ करने से जीवन की सभी बाधाएँ दूर होती हैं और भगवान हनुमान की कृपा सदैव बनी रहती है।
आपको हनुमानजी के प्रति अपनी भक्ति का प्रमाण देते हुए, कमेंट बॉक्स में " जय श्री राम" लिख दीजिए।

हनुमान चालीसा की रचना


 दोस्तों, हनुमान चालीसा तुलसीदास जी द्वारा रचित एक अत्यंत प्रसिद्ध भक्ति स्तोत्र है, जो भगवान हनुमान की स्तुति में लिखा गया है। यह अवधी भाषा में 40 चौपाइयों में है, इसीलिए इसे "चालीसा" कहा जाता है। इसमें हनुमान जी के चरित्र, गुणों, वीरता, शक्ति और उनकी भक्ति का वर्णन किया गया है। भक्तों के बीच यह अत्यंत लोकप्रिय है और इसे नियमित रूप से पाठ करने से भगवान हनुमान की कृपा प्राप्त होती है।

हनुमान चालीसा की मुख्य विशेषताएँ:

शक्ति और साहस: हनुमान जी को "अंजनी पुत्र" और "पवनसुत" कहा गया है, और उनकी वीरता तथा बल का महिमामंडन किया गया है।

ज्ञान और बुद्धि: उन्हें ज्ञान और बुद्धि का प्रतीक माना गया है, जो भक्तों को धैर्य और विवेक के साथ कठिनाइयों का सामना करने की प्रेरणा देते हैं।

भक्ति और सेवा: हनुमान जी को श्रीराम के परम भक्त के रूप में दर्शाया गया है, जिन्होंने समर्पण और सेवा का सर्वोच्च उदाहरण प्रस्तुत किया।

संकट मोचक: यह भी माना जाता है कि हनुमान चालीसा का पाठ करने से भक्त के सारे संकट दूर होते हैं और उसे मानसिक और शारीरिक बल प्राप्त होता है।


हनुमान चालीसा का आरंभ इस दोहे से होता है:

"श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि।
बरनऊँ रघुबर बिमल जसु, जो दायक फल चारि।।"

हनुमान चालीसा के पाठ से व्यक्ति को साहस, बल, और सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है। इसे नियमित रूप से पढ़ने से मन में आत्मविश्वास और शांति का विकास होता है, और भगवान हनुमान की कृपा से जीवन में आने वाली बाधाओं का नाश होता है।
पूरा हनुमान चालीसा पढ़ने के लिए अगली पोस्ट में पढ़ें।

बुधवार, नवंबर 06, 2024

शनि और हनुमान जी की कहानी


शनि देव और हनुमान जी की कहानी प्राचीन हिंदू ग्रंथों और पौराणिक कथाओं में बताई गई है, जो शनि देव के जीवन में एक महत्वपूर्ण घटना को दर्शाती है। कथा के अनुसार, जब हनुमान जी श्री राम की सेवा में राक्षसों के साथ युद्ध कर रहे थे, तब शनि देव ने उन्हें चुनौती देने की कोशिश की।

यह कहानी मुख्यतः उस समय की है जब हनुमान जी लंका में थे। हनुमान जी ने रावण की अशोक वाटिका में सीता माता का पता लगाया था और उनकी मदद के लिए आए थे। इसी दौरान, शनि देव ने यह निर्णय लिया कि वे हनुमान जी की परीक्षा लेंगे।

शनि देव ने हनुमान जी से कहा कि वे उन्हें चुनौती देना चाहते हैं, और अगर वे उनके शनि दृष्टि का प्रभाव सहन कर सकते हैं, तो वे उनकी शक्ति को स्वीकार कर लेंगे। परंतु हनुमान जी ने विनम्रता से कहा कि वे श्री राम के कार्य में व्यस्त हैं और इस समय उन्हें कोई भी बाधा नहीं चाहिए।

जब शनि देव ने आग्रह किया और हनुमान जी के ऊपर अपनी दृष्टि डालने का प्रयास किया, तो हनुमान जी ने उन्हें अपनी पूंछ में लपेट लिया और चारों ओर घुमाना शुरू कर दिया। हनुमान जी ने शनि देव को इतना घुमाया कि उन्हें बहुत पीड़ा हुई। तब शनि देव ने हनुमान जी से क्षमा मांगी और कहा कि वे उनकी शक्ति को स्वीकार करते हैं और उनसे कोई भी शत्रुता नहीं करेंगे।

इस पर हनुमान जी ने शनि देव को छोड़ दिया, और शनि देव ने वचन दिया कि वे उन भक्तों को कष्ट नहीं देंगे जो हनुमान जी की भक्ति करते हैं। इसीलिए, आज भी यह माना जाता है कि जो व्यक्ति नियमित रूप से हनुमान चालीसा का पाठ करता है या हनुमान जी की पूजा करता है, उसे शनि की दृष्टि से कष्ट नहीं होता।

शनि और हनुमान जी के बीच की कथा भारतीय पौराणिक कथाओं में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस कथा के अनुसार, जब हनुमान जी शनि देव की परीक्षा लेने के लिए गए, तो उन्होंने शनि की दृष्टि से बचने के लिए अपनी पूंछ को घुमाया, जिससे शनि को उनके साथ कोई शत्रुता नहीं करने का वचन देना पड़ा। इस घटना से यह सिखने को मिलता है कि भक्ति और निष्ठा से बड़े से बड़े संकट टाले जा सकते हैं। हनुमान जी की भक्ति से शनि की दृष्टि का प्रभाव कम होता है।

यह कथा हमें यह संदेश देती है कि भगवान की भक्ति और सच्ची निष्ठा से बड़े से बड़े संकट टाले जा सकते हैं।


भक्त नानी बाई नगर अंजार


दोस्तों, नानी बाई राजस्थान के भक्ति साहित्य और लोक कथाओं में एक विशेष स्थान रखती हैं, विशेषकर "नानी बाई का मायरा" के संदर्भ में।
 "नानी बाई का मायरा" एक प्रसिद्ध कथा है जो मीरा बाई के समय की मानी जाती है, और इसमें श्रीकृष्ण की भक्ति के चमत्कार और उनके द्वारा निभाई गई लाज का मार्मिक चित्रण किया गया है।

नानी बाई का मायरा की कथा

"नानी बाई का मायरा" कथा का आधार यह है कि नानी बाई नामक एक भक्त लड़की का विवाह तय होता है, और परंपरा के अनुसार, लड़की के पिता को मायरा (शादी में देने के लिए विशेष दान और उपहार) भरना होता है। इस कथा के अनुसार, नानी बाई के पिता गरीब और भक्त व्यक्ति होते हैं और उनके पास मायरे के लिए धन नहीं होता है। समाज में अपमान से बचने के लिए और अपनी बेटी का सम्मान बनाए रखने के लिए वे भगवान श्रीकृष्ण की शरण में जाते हैं और प्रार्थना करते हैं।

नानी बाई के पिता जी श्रीकृष्ण के सच्चे भक्त थे, और उन्होंने उनसे मदद की आशा में प्रार्थना की। कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर स्वयं मायरा भरने का निर्णय लिया। श्रीकृष्ण ने सजी-धजी बारात के साथ अद्भुत भव्यता से मायरे के लिए आवश्यक सभी वस्तुएँ दीं। वे सोने, चाँदी, हीरे, और रत्नों से भरी गठरी लेकर आए और धूमधाम से नानी बाई का मायरा भरा।

नानी बाई का मायरा का महत्व

"नानी बाई का मायरा" कथा भक्ति, समर्पण और भगवान पर अटूट विश्वास का प्रतीक है। यह कथा बताती है कि सच्चे भक्तों की लाज भगवान स्वयं रखते हैं। राजस्थान , गुजरात और मध्य प्रदेश के कई हिस्सों में इस कथा का मंचन किया जाता है और इसे गीतों के माध्यम से भी प्रस्तुत किया जाता है। विशेष अवसरों पर इस कथा का गायन भक्ति के रूप में होता है और इसे गाने वाले भक्त भगवान की महिमा और उनकी कृपा का वर्णन करते हैं।
 भगवान श्रीकृष्ण के भक्तों पर विशेष प्रेम और उनकी भक्ति के प्रति उनकी जिम्मेदारी का प्रतीक है। यह कथा आज भी भक्तों को भगवान में विश्वास रखने और उनकी भक्ति में अडिग रहने की प्रेरणा देती है।
नानी बाई गुजरात के प्रसिद्ध संत और कृष्ण भक्त नरसी मेहता की बेटी थीं। नरसी मेहता (जिन्हें नरसी भगत भी कहा जाता है) का जीवन भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति और उनके प्रति अनन्य प्रेम का उदाहरण है।
नरसी मेहता एक निर्धन और भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। उनके पास कोई संपत्ति नहीं थी, लेकिन वे कृष्ण में असीम श्रद्धा रखते थे। जब उनकी बेटी नानी बाई का विवाह तय हुआ, तो उन्हें विवाह के रीति-रिवाजों के अनुसार "मायरा" भरना था। मायरा में उपहार, गहने, कपड़े आदि शामिल होते हैं, जिन्हें बेटी के विवाह में देने की परंपरा होती है। लेकिन नरसी मेहता इतने गरीब थे कि उनके पास इस मायरे को भरने के लिए साधन नहीं थे। इस परिस्थिति में, उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की और उन पर अपना भरोसा बनाए रखा।

नरसी मेहता की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान श्रीकृष्ण ने उनकी लाज रखी और स्वयं गोकुल से द्वारिका तक मायरा भरने के लिए आए। कथा के अनुसार, भगवान कृष्ण ने अद्भुत वैभव के साथ मायरे की सभी आवश्यकताओं को पूरा किया। सोने-चाँदी के आभूषण, रत्न, वस्त्र और सभी प्रकार के उपहार भगवान स्वयं अपने दिव्य रूप में लाकर मायरा भरे और इस प्रकार नरसी मेहता की पुत्री नानी बाई का विवाह संपन्न हुआ।

"नानी बाई का मायरा" कथा भक्तों के बीच यह संदेश देती है कि सच्चे भक्त की सहायता भगवान स्वयं करते हैं और उसकी लाज कभी नहीं जाने देते।
यह कथा आज भी भक्ति और समर्पण का प्रतीक मानी जाती है और गुजरात, राजस्थान, और मध्य प्रदेश में बड़े प्रेम और श्रद्धा के साथ गाई जाती है।
तो कमेंट बॉक्स मे जय श्री कृष्ण लिखिए और अगली पोस्ट पर जाकर अन्य जानकारी पढ़िए।

मंगलवार, नवंबर 05, 2024

भक्त शिरोमणि मीरा बाई मेड़तिया


मीरा बाई (1498–1547) का जन्म राजस्थान के मेड़ता में हुआ था और वे राजा रत्नसिंह की बेटी थीं। मीरा बचपन से ही भगवान श्रीकृष्ण के प्रति गहरी भक्ति रखती थीं। उनका विवाह चित्तौड़ के राजा भोजराज से हुआ था, लेकिन पति की मृत्यु के बाद उन्होंने सांसारिक बंधनों से खुद को मुक्त कर लिया और पूरी तरह से कृष्ण-भक्ति में लीन हो गईं।

मीरा बाई की कविताएँ और भजन उनके भगवान के प्रति प्रेम, भक्ति और समर्पण की भावनाओं से भरी हुई हैं। उनकी रचनाएँ राजस्थानी, ब्रज, और गुजराती भाषाओं में मिलती हैं। मीरा ने अपने भजनों में श्रीकृष्ण को अपने पति और प्रियतम के रूप में संबोधित किया है और सामाजिक बंधनों की परवाह किए बिना, खुलकर अपने प्रेम का इज़हार किया। उनके भजनों में भक्ति, पीड़ा, और एकाग्रता की झलक मिलती है, जो आज भी लोगों के दिलों को छूती हैं।

मीरा बाई का जीवन और उनका साहित्यिक योगदान आज भी भारतीय भक्ति आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। उनका सरल और भावपूर्ण भक्ति मार्ग भक्तों को श्रीकृष्ण के प्रति असीम प्रेम और समर्पण का संदेश देता है।
मीरा बाई का जीवन सोलहवीं शताब्दी में हुआ था। उनका जन्म राजस्थान के मेड़ता नगर में 1498 में राठौर राजवंश के एक राजघराने में हुआ। उनके पिता राव रतन सिंह राठौर एक प्रतिष्ठित क्षत्रिय थे। मीरा का पालन-पोषण एक राजकुमारी की तरह हुआ, लेकिन उनका मन बचपन से ही सांसारिक सुख-सुविधाओं के बजाय भगवान कृष्ण में लगा रहा।

बाल्यकाल और कृष्ण भक्ति की शुरुआत
मीरा बाई को बचपन से ही श्रीकृष्ण के प्रति विशेष प्रेम था। उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण घटना तब घटी जब उन्होंने एक कृष्ण प्रतिमा देखी और उसे अपना पति मान लिया। इस घटना ने उनकी कृष्ण भक्ति को और गहरा कर दिया। बाल्यकाल में ही वे कृष्ण की भक्त बन गईं और हर समय उनकी उपासना में लीन रहने लगीं।

विवाह और वैवाहिक जीवन
मीरा का विवाह मेवाड़ के राजा भोजराज से हुआ। यह विवाह एक राजनीतिक गठजोड़ के रूप में हुआ था। उनके पति भोजराज वीर और धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे, लेकिन मीरा बाई की कृष्ण के प्रति भक्ति को वे पूरी तरह से समझ नहीं पाए। शादी के बाद भी मीरा का श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम और भक्ति बढ़ती गई। वे समाज के रीति-रिवाजों का पालन करने के बजाय कृष्ण की भक्ति में लीन रहतीं, जिससे कई बार ससुराल में उन्हें निंदा का सामना करना पड़ा।

पति और ससुराल के बाद का जीवन
शादी के कुछ समय बाद ही भोजराज का निधन हो गया, जिसके बाद मीरा का जीवन कठिनाइयों से भर गया। परिवार के लोगों ने उन पर कई तरह के प्रतिबंध लगाए और उन्हें अपनी भक्ति छोड़ने के लिए मजबूर करने की कोशिश की। लेकिन मीरा ने इन सभी कठिनाइयों का साहस से सामना किया और अपनी कृष्ण भक्ति में डूबी रहीं।

त्याग और संन्यास का जीवन
ससुराल में प्रताड़ित होने के बाद मीरा ने सांसारिक बंधनों को त्याग दिया और मथुरा व वृंदावन जैसे तीर्थ स्थानों की यात्रा की। वे साधुओं और संतों के साथ समय बिताने लगीं और पूरी तरह से कृष्ण की भक्ति में डूब गईं। बाद में वे द्वारका चली गईं, जहाँ उन्होंने अपना अंतिम समय बिताया।

मीरा बाई की मृत्यु
ऐसा माना जाता है कि 1547 में मीरा बाई ने श्रीकृष्ण की भक्ति में ध्यान लगाते हुए अपना शरीर त्याग दिया। एक कथा के अनुसार, वे द्वारका के कृष्ण मंदिर में ध्यानमग्न होकर भगवान में विलीन हो गईं।

साहित्यिक योगदान
मीरा बाई ने अपने जीवन में कई भक्ति गीतों और भजनों की रचना की। उनके भजनों में भगवान कृष्ण के प्रति उनका गहरा प्रेम, समर्पण और दर्द व्यक्त होता है। उनकी रचनाओं में सामाजिक बंधनों के प्रति विद्रोह और भक्ति की स्वतंत्रता की भावना भी देखने को मिलती है।

मीरा बाई का जीवन प्रेम, भक्ति और समर्पण का उदाहरण है। उनके द्वारा गाए गए भजन आज भी लोगों को कृष्ण भक्ति की राह पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं।
मीराबाई की रचनाएँ उनकी गहरी भक्ति और भगवान श्रीकृष्ण के प्रति उनके अनन्य प्रेम का प्रतीक हैं। उनके भजनों और कविताओं में प्रेम, समर्पण, और समाज के बंधनों के प्रति विद्रोह के भाव स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। मीरा बाई के भजन मुख्य रूप से ब्रज भाषा, राजस्थानी, और गुजराती में रचे गए हैं, और इनमें सादगी के साथ भावनाओं की गहराई भी झलकती है।

उनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ और भजनों के विषय इस प्रकार हैं:

1. प्रेम और समर्पण
मीरा बाई की रचनाओं का सबसे मुख्य विषय श्रीकृष्ण के प्रति उनका प्रेम और संपूर्ण समर्पण है। उदाहरण के लिए उनका प्रसिद्ध भजन है:

> "पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।"
इस भजन में वे अपने आत्मिक धन के रूप में भगवान का नाम प्राप्त करने की अनुभूति व्यक्त करती हैं।




2. कृष्ण को पति मानकर भक्ति
मीरा ने श्रीकृष्ण को अपना पति और प्रियतम मानकर उनकी भक्ति की। उनके भजनों में एक पत्नी की तरह अपने प्रियतम की प्रतीक्षा और विरह का अनुभव है। जैसे:

> "मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।"
इस भजन में मीरा ने भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम और समर्पण को व्यक्त किया है, जहाँ उनके लिए कृष्ण के अलावा कोई और प्रिय नहीं है।




3. विरह और पीड़ा
मीरा बाई के भजनों में विरह की वेदना और कृष्ण से मिलन की आकांक्षा भी दिखाई देती है। उनके कई भजन कृष्ण से मिलन की तड़प और पीड़ा को व्यक्त करते हैं, जैसे:

> "मैं तो साँवरे के रंग राची।"
इस भजन में वे कृष्ण के प्रेम में रंगी होने की बात करती हैं और उनकी अनुपस्थिति में अपने दर्द को अभिव्यक्त करती हैं।




4. सामाजिक बंधनों का विरोध
मीरा बाई की रचनाओं में समाज और पारिवारिक बंधनों के प्रति विद्रोह भी दिखता है। उन्होंने खुलकर अपने प्रेम का इज़हार किया और समाज की बंदिशों को नकारते हुए अपने मार्ग पर डटी रहीं। उदाहरण:

> "लाल गिरधर बिन रह ना सकूँ।"
इसमें वे कहती हैं कि बिना अपने गिरधर के वे जी नहीं सकतीं, चाहे समाज कुछ भी कहे।




5. भक्ति का उच्च आदर्श
मीरा बाई का भक्ति मार्ग किसी भौतिक वस्तु की कामना नहीं करता बल्कि केवल भगवान से मिलन की कामना करता है। उनके एक और प्रसिद्ध भजन में वे कहती हैं:

> "जो मैं ऐसा जानती, प्रीत किए दुःख होय।"
इस भजन में वे भक्ति और प्रेम के मार्ग में मिलने वाले कष्टों का उल्लेख करती हैं, लेकिन फिर भी इस मार्ग को अपनाने की बात करती हैं।





मीरा बाई के ये भजन भारतीय भक्ति साहित्य की धरोहर हैं और आज भी उनके भावपूर्ण भजन भक्तों में अपार श्रद्धा और प्रेरणा का संचार करते हैं। उनकी रचनाएँ भक्तों को भगवान के प्रति समर्पण और प्रेम के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती हैं।
मीरा बाई के बारे में पूरा लिखना किसी के वश में नहीं है इसलिए हम जितना जानते थे उतना ही आपको बता पा रहे है, कमेंट करते हुए बताए कि और कोई जानकारी है।

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संत रामानंद जी महाराज के शिष्य

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